Friday, December 14, 2012

बनारस के कवि/शायर-आनंद परमानंद

बनारस के शायरों में आनन्द परमानन्द का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। इस बार आप इन्हीं की रचनाओं का आनन्द उठायेंगे।
आनन्द परमानन्द जी का जन्म १ मई सन १९३९ ई० को हुआ। आपके पिताजी का नाम स्व० पुरुषोत्तम सिंह तथा आपका जन्म स्थान ग्राम-धानापुर, पो०-परियरा,जिला-वाराणसी है। आप गीत ग़ज़लों के काव्यमंचों के चर्चित कवि हैं तथा आप की निबन्ध लेखन, प्राचीन इतिहास और पुरातत्व में बेहद रुचि है। आप की प्रकाशित पुस्तकें हैं :- वाणी चालीसा, सड़क पर ज़िन्दगी [ग़ज़ल संग्रह] आदि।






1.  ज़िन्दगी रख सम्भाल कर साथी :-

ज़िन्दगी रख सम्भाल कर साथी।
अब न कोई मलाल कर साथी।


जिनके घर रौशनी नहीं पहुँची,
उन ग़रीबों का ख्याल कर साथी।


गाँजना मत विचार के कूड़े,

फेंक दो सब निकाल कर साथी


जिनके उत्तर तुम्हें नहीं मिलते,

अपने भीतर सवाल कर साथी।


वक्त तुमको निहारता है रोज़,

आँख में आँख डालकर साथी।


कोई तेरा नहीं ज़माने में,
मत रखो भ्रम ये पालकर साथी।


देखकर यह मिज़ाज जोखिम का,

वक्त का इस्तेमाल कर साथी।

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 2. सघन कुंज की ओ!लता-वल्लरी सी :-

सघन कुंज की ओ!लता-वल्लरी सी।
सुवासित रहो भोर की पंखुरी सी।


मैं आसावरी राग में गा रहा हूँ,

तू बजती रहो रात भर बांसुरी सी।


नमित लोचना-सौम्य-सुंदर,सुअंगी,

मेरे गंधमादन की अलकापुरी सी।


महारात्रि की देवि मातंगिनी सी,

मेरी जिन्दगी है खुली अंजुरी सी।


ये यौवन,ये तारुण्य,ये शब्द सौरभ,

हो परिरम्भ की मद भरी गागरी सी।


मेरी आँख की झील में तैर जाओ,

परी देश की ओ नशीली परी सी।


तू कविता की रंगीन संजीवनी है,

सुरा-कामिनी काम कादम्बरी सी।


मैं तेरे लिये फिर से ’आनंद’ में हूँ,
न जाओ अभी रात तुम बावरी सी।

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3. अब नहीं दशरथ नहीं रनिवास है :-

अब नहीं दशरथ नहीं रनिवास है।
राम सा लेकिन मेरा बनवास है।


शुभ मुहूरत क्या पता इस देश में,

जन्म से अब तक यहाँ खरमास है।


वक़्त घसियारे के हाथों कट रही,

रात-दिन जैसे उमर की घास है।


शहर से गुस्से में आयी जो इधर,

मौत का कल मेरे घर अभ्यास है।


सभ्यता ने कल कहा ऐ आदमी,

अब तो मैंने ले लिया सन्यास है।


ज़िन्दगी शिकवा करे फुर्सत कहाँ,

हर तरफ पूरा विरोधाभास है।


क्या पता घर का लिखूँ ऐ दोस्तों,

हर गली,हर मोड़ पर आवास है।


अर्थ तो निर्भर है सचमुच आप पर,

शब्द का भावों से पर विन्यास है

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4. प्रगति के हर नये आयाम को वरदान कह देना :-

प्रगति के हर नये आयाम को वरदान कह देना।
नये बदलाव को इस दौर का सम्मान कह देना।

न मज़हब-धर्म, छूआ-छूत,मानव-भेद तू कहना,
अगर इतिहास पूछेगा तो बस इंसान कह देना।


कहीं जब भी चले चर्चा तुम्हारे देश गौरव की, 

भले मरुभूमि है लेकिन तू राजस्थान कह देना।

बदलती मान्यताओं में कठिन संघर्ष होते हैं,

 जो छूटा भीड़ में खोता है वो पहचान कह देना।

चुनावों की खुली रंजिश से हालत गांव की बिगडी़, 

हैं चिंता में बहुत डूबे हुए खलिहान कह देना।

जो शासन आम जनता की हिफ़ाज़त कर नहीं सकता,
समय उसको बदल देता है ये श्रीमान कह देना।


व्यवस्था चरमराकर धीरे-धीरे टूट जाती है,
उपेक्षित हो गये शासन में यदि विद्वान कह देना।


हों जलसे या अनुष्ठानों के व्रत-पर्वों के पारायण,
खु़दा या राम कहना और हिन्दुस्तान कह देना

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5क्या कहूँ किन-किन परिस्थितियों में कब होता हूँ मैं :-

क्या कहूँ किन-किन परिस्थितियों में कब होता हूँ मैं।
आप यह कि हल के बैल सा जोता हूँ मैं।

खो न जाऊँ भीड़ में छोटी चवन्नी की तरह,
रोज़ खु़द को वक़्त की इस जेब में टोता हूँ मैं।

जानकर मौसम नहीं खुशियाँ उगा सकता कभी,
टूटता विश्वास फिर भी कोशिशें बोता हूँ मैं।

मुझको सहलाती है पीडा़ अपने बेटे की तरह,
जब कमी होती है अक्सर प्यार में, रोता हूँ मैं।

नम हुई आँखें तो पलकें मूंद लेता हूँ मगर,
सोचना मत ज़िन्दगी मेरी कभी सोता हूँ मैं।

फिर हैं चौकन्ना समस्यायें बहेलिये की तरह,
देखना ऐ सांस! तेरा पालतू तोता हूँ मैं।

Wednesday, July 18, 2012

बनारस के कवि और शायर/ श्री विन्ध्याचल पाण्डेय

       आज मैं बनारस के एक काव्यजगत के अप्रतिम हस्ताक्षर और मेरे मित्र श्री विन्ध्याचल पाण्डेय की रचनाएं आप के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। श्री विन्ध्याचल पाण्डेय बनारस काव्य-मंचों के बहुत ही मशहूर कवि हैं और ये अपनी कविता में नये तेवर के लिए जाने जाते हैं। आशा है आपको ये रचनाएं पसन्द आयेंगी....


ग़ज़ल-1

अजीब बात अजीब दौर अजब लोग यहाँ।
न जाने कौन-सा फैला हुआ है रोग यहाँ।


उपनिषद, वेद, संहिताएं कौन गुनता है,
बदल कलेवर हुआ योगा अब तो योग यहाँ।


धर्म के मर्म से अनजान इण्डिया वाले,
त्याग, वैराग्य पर भारी है अब तो भोग यहाँ।


डूबती नाव, भंवर और नशे में माझी,
बन रहा इस तरह हठाग्रही कुयोग यहाँ।


अर्थ के फेर में अनर्थ का समर्थन है,
उदारता में उदारीकरण का सोग यहाँ।

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ग़ज़ल-2

सच न कहेंगे, सच न सुनेंगे, इसलिए हम है आज़ाद।
सुरा-सुन्दरी, भ्रष्टाचार जिन्दाबाद, जिन्दाबाद।


सुविधा-शुल्क और महंगाई, इसीलिए सरकार बनाई,
कौन सुनेगा किसे सुनाएं अब जाकर जनता फरियाद।


सूर, कबीर, निराला, तुलसी, गालिब, मीर मील के पत्थर,
नई फसल के लिए शेष है अब तो केवल वाद-विवाद।


सेण्टीमेण्ट विलुप्त हो रहा, इन्स्ट्रुमेन्टल प्यार हो गया,
झूम रहे हैं, घूम रहे हैं, कौन करे इसका प्रतिवाद।


क्षेत्रवाद, आतंकवाद को भाषा, धर्म से जोड़ा,
सत्ता वाली कुर्सी खातिर, करते नए-नए इजाद।