बनारस के कवि/शायर में इस बार आप नरोत्तम शिल्पी की रचनाओं का आनन्द उठायेंगे।नरोत्तम शिल्पी का जन्म २० जनवरी सन १९४५ को काज़ीपुरा खुर्द,औरंगाबाद,वाराणसी में हुआ।आपके पिताजी का नाम मेवालाल विश्वकर्मा तथा माता का नाम श्रीमती राजकुमारी देवी है।आप मुर्तिकला और चित्रकला के जानकार हैं और इसी लिये आप ’शिल्पी’ नाम से जाने जाते हैं।आप की संगीत और नाट्य में बेहद रुचि रखते हैं।आप की प्रकाशित पुस्तक है-बुतों के बीच।आप का पता है-सी-८/२८ चेतगंज,वाराणसी।यहाँ इनकी चार ग़ज़लें और एक गीत प्रस्तुत है-
1. वक्त की शायद ये हैं अंगडा़इयाँ :-
वक्त की शायद ये हैं अंगडा़इयाँ।
हैं जुदा मुझसे मेरी परछाइयाँ।
क्यूं कहूँ तनहा कभी मैं ना रहा,
भीड़ में हैं खल रहीं तनहाइयाँ।
धुन सुनी है जिन्दगानी के खि़लाफ़,
मौत की दस्तक हैं ये शहनाइयाँ।
कर रहे थे रहबरी जो एक दिन,
खोदते हैं अब तो वे ही खाइयाँ।
साथ में आया हूँ जिसके मैं यहाँ,
हो मुबारक उसको ये ऊँचाइयाँ।
नाम शिल्पी का बहुत बदनाम है,
क्या हुआ,बढ़ जायेगी रुसवाइयाँ।
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2. दबे पाँव आती है यादें तुम्हारी :-
दबे पाँव आती है यादें तुम्हारी।
उसी दम मचलती है धड़कन हमारी।
कलम साथ होती नहीं है हमेशा,
तसव्वुर बनाता है तस्वीर प्यारी।
हुए चन्द अशआर तेरी बदौलत,
भरी गोद कागज़ की जो थी कुँआरी।
न आए न आए कहा पर न आए,
भरे आह ये मज्बूरियाँ ये बेचारी।
करम है सनम का लुटाता है जलवा,
तबर्रुख में उलझा सनम का पुजारी।
रहम कर के क्या दे दिया ये तो सोचो,
भला कैसे जिये ये भूखा भिखारी।
जरा साथ बैठो कहीं पर कभी भी,
सुनाएं कि ’शिल्पी’ ने कैसे गुजारी।
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3. ऐसी पेचीदगी कहाँ होगी :-
ऐसी पेचीदगी कहाँ होगी।
अपनी सी ज़िन्दगी कहाँ होगी।
दर्द सहता ही नहीं पीता हूँ,
इतनी बेचारगी कहाँ होगी।
तंग दस्ती में समझना आसां,
कितनी पाबन्दगी कहाँ होगी।
फूल तो गढ़ के बना सकता हूँ,
पर वही ताज़गी कहाँ होगी।
बोझ इतना लदा है काँधे पर,
मुझसे आवारगी कहाँ होगी।
हाथ उठते नहीं दुआ के लिए,
फिर तो अब बन्दगी कहाँ होगी।
मयकदा बन्द पडा़ है कबसे,
चल के फिर रिन्दगी कहाँ होगी।
हूँ तो सादामिज़ाज पर ’शिल्पी’,
फ़न में वो सादगी कहाँ होगी ।
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4. बैठे हैं क्यूं तनहा-तनहा :-
बैठे हैं क्यूं तनहा-तनहा।
मैं भी तो हूँ तनहा-तनहा।
पास चलूं क्या सोचेंगे वो,
बस ये सोचूँ तनहा-तनहा।
संबंधो में अरमानों का,
होता है खूँ तनहा-तनहा।
जो पाया सब जग जाहिर है,
खोकर ढूढूँ तनहा-तनहा।
मंजिल कितनी दूर अभी है,
पग-पग नापूँ तनहा-तनहा।
सारे साथी भूखे होंगे,
कैसे खालूँ तनहा-तनहा।
रिश्ते सबके आगे-पीछे,
किसको मानूँ तनहा-तनहा।
तोड़ के बन्धन हर रिश्ते का,
जाते हैं यूँ तनहा-तनहा।
दर्द बुतों का सुनने वाला,
’शिल्पी’ है तू तनहा-तनहा।
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5. गीत/ देते रहना प्यार सभी को :-
देते रहना प्यार सभी को,
लेते रहना प्यार सभी से।
करके देखो खूब मिलेगी,
इज्जत तुमको यार सभी से।
जिसकी कद्र करोगे तुम,
निश्चित वह कद्र करेगा।
प्यार कदाचित जिसको दोगे,
तुमको भद्र कदेगा।
थोडी़ सी खुदगर्जी आई,
पाओगे धिक्कर सभी से.............
खरी बात खोटी कहलाती,
लगती बहुत बुरी है।
स्वाभिमान पर ठेस लगे और,
दिल पे चले छुरी है।
मीठी बोली बोलोगे तो,
लूटोगे सत्कार सभी से.....
दुनिया वाले इक दूजे से,
रखते खूब अपेक्षा।
प्रतिफल अच्छा नहीं मिला तो,
करते खूब उपेक्षा।
करो समीक्षा,पुनः प्रतीक्षा,
कहता समय पुकार सभी से......
सींग,नुकीले दंत और नख,
द्वन्द्व हेतु पाया हर प्राणी।
हर से मिली पृथक मानव को,
बुद्धि,जिह्वा,वाणी।
प्रतिद्वन्दी ’शिल्पी’ बहुतेरे,
रखना शुद्ध विचार सभी से........